मतदान
धनीराम कभी किसी के लेने-देने में नहीं रहे। दुनियादारी
से दूर, सरल स्वभावी और स्नेहिल धनीराम को गाँव के लोग चाचा कहते थे। लोग जानते थे
कि अगर बच्चा भी सामने से निकले और चाचा को देख न पाए तो चाचा खुद आगे बढ़ कर उससे
राम-राम कर लेंगे। धनीराम से राजीखुशी पूछने में लोगों को भी सुख मिलता था। एक
निश्छल बड़प्पन-सा उनमें था, जिसके प्रति बरबस आदर उमड़ता था।
बीते कुछ सालों से धनीराम थोड़े उदास रहने लगे थे, पर
किसी को अपना दुःख नहीं सुनाते थे। जानते थे, किसी को दुःखड़ा सुनाने से होगा भी
क्या? जब भी चुनाव आता उनके चेहरे पर
उम्मीद की एक किरण-सी दिखने लगती। वे बिना नागा हर चुनाव में वोट डालने जाते। भरसक
जल्दी पहुँचने की कोशिश करते। इस बार भी पहुँचे। मतदान केंद्र पर इक्के-दुक्के
मतदाता बी आ-जा रहे थे।
अपना वोट डालने के बाद भी जब धनीराम बाहर नहीं गए तो
मतदान अधिकारी ने थोड़े आवेश में उनसे पूछा, “आपका वोट तो हो चुका है न चाचा? खड़े क्यों हैं? बाहर
जाने का रास्ता उधर है।”
धनीराम ने विनय की, “भइया, जरा लिस्ट देख कर यह बता दो कि मेरी पत्नी धनिया का वोट पड़
चुका है या नहीं?”
उनके स्वर की कातरता ने मतदान अधिकारी को गरम रुख नहीं
अपनाने दिया। उसने सूची पर नज़र डाली। बताया, “धनिया चाची तो वोट डाल चुकी हैं।”
धनीराम के चेहरे पर पाश्चाताप घिर आया। खुद को कोसने लगा,
“फिर मुझसे देर हो गई, पहले आ जाता तो
इस बार ज़रूर मुलाक़ात हो जाती।”
मतदान अधिकारी को सहानुभूति हुई, पूछा, “चाची आपसे अलग रहती हैं क्या?”
“नहीं। उसे मरे तो दस साल हो गए, लेकिन हर चुनाव में वोट डालने ज़रूर
आती है। मैं ही उसके वक़्त पर नहीं आ पाता। मेरा ही भाग्य खोटा है। इस चुनाव में
भी मुझे आने में देर हो गई।”
डॉ. जयकुमार जलज (हिंदी मिलाप)
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