संन्यास (बुद्ध कथा)

एक बार भगवान बुद्ध दोपहर के समय एक स्थान पर भिक्षाटन से प्राप्त भिक्षा ग्रहण कर रहे थे। उसी समय पोतलिय नामक एक गृहपति वहाँ आया। बुद्धदेव ने उससे कहा, "आओ गृहपति! आसन पर विराजमान हो।"

पोतलिय ने कहा, "भगवन! आप मुझे 'गृहपति' कह कर संबोधित न करें, क्योंकि मैंने अपने घर को त्याग दिया है।"

तथागत ने कहा, "नहीं गृहपति, तुम्हारा व्यक्तित्व एवं चर्या तुम्हें गृहपति ही सिद्ध करती है।"

पोतलिय ने फिर से अपनी बात रखते हुए कहा, "भगवन! मैंने अपनी खेतीबाड़ी का काम छोड़ दिया है। खरीद-बिक्री के व्यवहार त्याग दिए हैं। मेरे पास जो भी धन-धान्य था, सभी अपने पुत्रों को बांट दिया है। मैं तो सिर्फ खाने-पहनने से ही वास्ता रखता हूँ।"

"मगर गृहपति, तू यह समझता है कि तूने घर के सारे व्यवहार-उच्छेद कर दिए हैं, यह तेरी सबसे बड़ी भूल है। वास्तविक व्यवहार-उच्छेद इस तरह नहीं होता।"

"तब वास्तविक व्यवहार-उच्छेद कैसे होता है भगवन?" पोतलिय के सवाल के जवाब में बुद्धदेव बोले,"गृहपति सुनो! हिंसा, लोभ, क्रोध, अभिमान व चुगली करने का त्याग है - व्यवहार-उच्छेद। गृह-त्याग का अर्थ घर से दूर रहने से नहीं है, बल्कि बुराइयों के त्याग से है। सारे अनर्थ की जड़ ये बुराइयाँ ही हैं और इन्हीं का त्याग करने से ही धार्मिक जीवन की प्रतिष्ठापना संभव है।"

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