सबसे बड़ी गरीब

आज सुबह किशोर की आँख खुली तो सरला को कुछ अनमना-सा पाया। वो तकिये को आगोश में लिए सिसक रही थी। किशोर का मन यह सोच कर व्यथित हो रहा था कि आखिर क्या बात हो गई, उसे कभी रोते हुए नहीं देखा, सुख हो या दुःख हमेशा मुस्कान उसकी शोभा बनी रही, और आज किसी बात की कमी नहीं है। गाड़ी, बंगला, नौकर-चाकर, और तो और मैं भी आब रिटायर हो चुका हूँ। बेटा-बेटी विदेश में पढ़-लिख कर वहीं सैटल हो चुके हैं, और बहुत अच्छे पदों पर काम कर रहे हैं।

"क्या हुआ?"

"कुछ नहीं।"

"रो क्यों रही हो? सिर में दर्द है क्या?"

"नहीं, आपने चाय पी कि नहीं?"

"मेरी चाय की छोड़ो, पहले ये बताओ कि बात क्या है? तुम्हें मेरी कसम।"

"मैं बहुत अभागी हूँ किशोर, कुछ भी समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूँ? इस उम्र में बच्चों की बहुत याद आती है। कहने को तो आज हमारे पास सब कुछ है, लेकिन अपने आपको बहुत गरीब महसूस कर रही हूँ।"

"आखिर हुआ क्या? बच्चों को तो हमने ही भेजा था विदेश में, जिद करके।"

"हाँ भेजा था, लेकिन ये नहीं जानती थी कि वो वहीं के होकर रह जाएँगे।  सच मानो किशोर, अब लगता है कि मैंने अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारी है। कल हम लोग गए थे राजेन्द्र के यहाँ, उसका भरा-पूरा परिवार देख कर मन को सुकून मिला। लड़के-बहुएँ, नाती-नातिन, बेशक वो लोग ज्यादा नहीं कमाते, लेकिन राजेन्द्र की असली दौलत तो यही हैं। बहुओं कीं बजतीं पाजेब और चूड़ियाँ, आँगन में गूँजतीं नन्हें-मुन्नों की किलकारियाँ, इन खुशियों पर तो हजारों-करोड़ों निछावर कर दूँ। सच में किशोर, आज मैं अपने आपको बहुत ठगा महसूस कर रही हूँ।" अपने आँसू पोंछते हुए सरला ने किशोर के सीने पर सिर रख दिया और फफक-फफक कर रोने लगी।

राघव दुबे
(हिंदी मिलाप-5/10/19)

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