सार्थक यज्ञ

एक बार युधिष्ठिर ने विधि-विधान से महायज्ञ का आयोजन किया। उसमें दूर-दूर से राजा-महाराजाऔर विद्वान आये। यज्ञ पूरा होने के बाद दूध और घी से आहुति दी गई, लेकिन फिर भी आकाश से घंटियों की ध्वनि सुनाई नहीं पड़ी। जब तक घंटियाँ नहीं बजतीं, यज्ञ अपूर्ण माना जाता। वह सोचने लगे कि आखिर यज्ञ में कौन-सी कमी रह गई कि घंटियाँ सुनाई नहीं पड़ी। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से अपनी समस्या के बारे में बताया। श्रीकृष्ण ने कहा, 'किसी गरीब, सच्चे और निश्छल हृदय वाले व्यक्ति को बुला कर उसे भोजन कराएँ।'

 श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को ऐसे एक व्यक्ति के बारे में बताया। यूधिष्ठिर उन्हें लेकर यज्ञ-स्थल पर आए। भोजन करने के बाद उस व्यक्ति ने ज्यों ही संतुष्ट होकर डकार ली, आकाश से घंटियाँ गूँज उठीं। यज्ञ की सफलता से सब प्रसन्न हुए। युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से पूछा, 'भगवन, इस निर्धन व्यक्ति में ऐसी कौन-सी विशेषता है कि उसके खाने के बाद ही यज्ञ सफल हो सका।'

श्रीकृष्ण ने कहा, 'धर्मराज, इस व्यक्ति में कोई विशेषता नहीं है, यह गरीब है। दरअसल, आप ने पहले जिन्हें भोजन कराया, वे सब तृप्त थे। जो व्यक्ति पहले से तृप्त हैं, उन्हें भोजन कराना कोई विशेष उपलब्धि नहीं है। जो लोग अतृप्त हैं, जिन्हें सचमुच भोजन की जरूरत है, उन्हें खिलाने से उनकी आत्मा को जो संतोष मिलता है, वही सबसे बड़ा यज्ञ है। वही सच्ची आहुति है।'
हिंदी मिलाप - 25-11-19

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