Let's Kill Gandhi
Let’s Kill Gandhi – written by Mr. Tushar A Gandhi
यह पुस्तक मैंने केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल
में सेवा दौरान पुस्तकालय में पढ़ी थी। निरीक्षक (हिंदी अनुवादक) पद पर कार्य करते
समय अनुवाद के ज्ञानार्जनोपरांत मेरी इच्छा इसके अनुवाद की हुई थी, लेकिन उस समय
पुस्तक उपलब्ध न होने के कारण इच्छा अधूरी रह गई। सेवानिवृत्ति के पश्चात अपनी
क्षुधा शांत करने के लिए अमेजन से यह पुस्तक मंगवाई और छोटा सा प्रयास करने का
निश्चय किया जिससे हिंदी भाषी पाठकों तक इसकी पहुँच उपलब्ध करा सकूँ। मेरा यह भी
प्रयास रहा है कि पुस्तक के भावों, विचारों, तथ्यों आदि को सरल भाषा में प्रस्तुत
करूँ जिससे वे पाठकों के मन तक आसानी से पहुँच सकें। मैंने स्वयं को अपने विचारों
को जोड़ने के लोभ से मुक्त रखा है। मैं यह दावा नहीं कर सकता कि मेरा अनुवाद
उत्कृष्ट कोटि का है, क्योंकि अनुवादक की रचना में उसके शब्द-भंडार और शैली की छाप
होती है जो मूल लेखक की शैली से भिन्न होना स्वाभाविक है।
मेरा अनुरोध है कि पाठक मेरे प्रयास का मूल्यांकन
कर अपने विचारों से अवगत कराएँ और जहाँ कहीं भी सुधार की संभावना दिखाई दे अवश्य
सूचित करें।
धन्यवाद सहित,
रवीन्द्र
कुमार खरे
हिंदी
अनुवादक
Let’s Kill Gandhi – written by Mr. Tushar A Gandhi
(हिंदी अनुवाद – रवीन्द्र कुमार खरे)
प्रस्तावना
30
जनवरी 1948 को नवस्वतंत्र भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की एक हिंदू
कट्टरवादी द्वारा हत्या की गई थी।
विश्व
इस दिन उन्हें याद करता है और श्रद्धांजलि अर्पित करता है, लेकिन उनकी हत्या की कहानी भुला दी गई है।
प्रत्येक 30 जनवरी को भारत सरकार के मुखिया राजघाट जाकर उनकी समाधि पर पुष्पमाला
चढ़ाते हैं। भारत के लोगों को याद दिलाने के लिए कि इस दिन शांति दूत महात्मा
गाँधी की हत्या की गई थी, सुबह 11 बजे एक साइरन बजता है। लेकिन उनके
बलिदानों को भुला दिया गया है। आज भारत उसी रास्ते पर तेजी से बढ़ रहा है जिसके
कारण 1947 में इसका विभाजन हुआ था। यदि इस
घृणा और विध्वंश को नहीं रोका गया तो राष्ट्र के रूप में हमारा अस्तित्व समाप्त हो
जाएगा। हमें बचाने के लिए वो अब हमारे बीच नहीं हैं; उनका बलिदान
व्यर्थ हो जाएगा।
30
जनवरी 1948 से कई दलों ने उनकी हत्या के बारे में अपनी, आधारहीन परिकल्पनाओं को
प्रचारित किया है। बहुत सी झूठी बातों को सत्य बनाकर प्रस्तुत किया है। अर्धसत्य
को सत्य घटनाओं से जोड़कर पूर्ण सत्य बना कर प्रस्तुत किया गया है। हत्यारे
नाथूराम गोडसे के हत्या के कार्य को यह कह कर महिमामंडित किया गया है कि उसने गाँधी
जी के पाकिस्तान की तरफ झुकाव के रवैये के कारण हिंदुओं को होने वाली हानि से
क्रुद्ध होकर यह कार्य किया है। ‘महात्मा गाँधी विभाजन के लिए जिम्मेदार थे’; ‘महात्मा गाँधी
हिंदुओं को त्याग कर मुस्लिमों को शरण दे रहे थे’; ‘यदि महात्मा गाँधी को और जीने दिया होता तो वे
हिंदू राष्ट्र के सिद्धांत को हानि पहुँचाते’; ‘महात्मा गाँधी ने पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए
भुगतान करने के लिए भारत सरकार को बाध्य किया’; ‘महात्मा गाँधी ने हिंदुओं की पीड़ाओं की तरफ आँख
मूंद ली और विभाजन के समय देश में रुक गए मुस्लिमों को पुचकारते रहे’; ‘गाँधी जी की हत्या
ही भारतमाता की रक्षा करने का एकमात्र रास्ता था’; उनकी
हत्या को न्यायोचित ठहराने के लिए गोडसे के अनुयायियों तथा हिंदी दक्षिणपंथियों
द्वारा प्रचारित असत्य में से कुछ यही थे और अभी भी हैं।
लेकिन
क्या सत्य यही है? भारतीयों की एक पीढ़ी इन्ही बातों को ही सत्य
मानते हुए बड़ी हुई। जब भी गाँधी जी पर आक्रमण हुआ उन्होंने दूसरा गाल आगे कर
दिया, ऐसे गाँधी जी के अनुयायियों की चुप्पी ने इस मान्यता को और मजबूत किया। क्या
किसी को जानकारी है कि प्रलेखों के अनुसार 20 और 30 जनवरी 1948 के पहले भी गाँधी
जी के जीवन पर चार हमले हो चुके थे? पाँच असफल प्रयासों
में से चार उस समय किए गए थे जब मुस्लिम लीग की कार्यसूची में पाकिस्तान था ही
नहीं। सभी चारों आक्रमण पूना के उच्चजाति के हिंदुओं के उग्र दक्षिणी स्कंध द्वारा
किए गए थे; उनके
जीवन पर इन चार प्रयासों में से तीन नारायण आप्टे-गोडसे गिरोह द्वारा किए गए थे और
इन में से दो प्रयासों में नाथूराम पकड़ा गया था।
20
जनवरी को एक पंजाबी शरणार्थी मदनलाल पहवा ने बिड़ला हाउस में सायंकालीन प्रार्थना
के दौरान देसी बम फोड़ा था। गिरफ्तार होने के बाद मदनलाल ने स्वीकार किया था कि वह
गाँधी की हत्या की योजना बनाने वाले गिरोह का सदस्य था। उसने स्वीकार किया था कि
उस गिरोह के नेता पूना के थे और उनमें से एक ‘हिंदू राष्ट्र’ व ‘अग्रणी’ का संपादक व प्रकाशक था। मराठी भाषा की
पत्रिकाएँ गोडसे और आप्टे द्वारा मुद्रित व प्रकाशित की जाती थीं। मदनलाल पुलिस को
मरीना होटल के कमरा नं. 40 तक ले गया जहाँ गिरोह के नेता 20 तारीख के प्रयास के
असफल होने के पूर्व ठहरे थे। पुलिस को उस कमरे से कुछ कपड़े मिले थे जिसमें नाथूराम
विनायक गोडसे के अद्याक्षर एन.वी.जी. पाए गए। उन्हें दिल्ली हिंदू महासभा के सचिव
की प्रेस विज्ञप्ति की एक प्रति भी मिली जो उस समय तक जारी नहीं हुई थी।
20
तारीख के असफल प्रयास के बाद, रूइया कॉलेज, बॉम्बे के हिंदी के प्राध्यापक
प्रोफेसर जे.सी. जैन ने, जिनके पास मदनलाल कश्मीरीलाला पहवा ने शेखी बधारी थी कि
वह उस गिरोह का हिस्सा है जो दिल्ली में गाँधी जी की हत्या के लिए निकल चुका है, बॉम्बे
प्राविन्स के गृहमंत्री मोरारजी देसाई को सूचित किया। देसाई ने जैन की चेतावनी पर
ध्यान नहीं दिया, लेकिन केंद्रीय गृहमंत्री सरदार पटेल से अहमदाबाद में मिलने पर
जिक्र भर कर दिया। पटेल ने स्वीकार किया कि उनके पास भी ऐसे षड़यंत्र की सूचना है,
लेकिन जैन की कहानी को अधिक महत्व की न होने के कारण खारिज कर दिया।
पुलिस
के पास यह पूरी जानकारी होने के बाद भी वह षड़यंत्रकारियों को न तो पकड़ नहीं पाई और
न ही समय पर उनकी पहचान कर पाई। दस दिन के बाद नाथूराम गोडसे, नारायण आप्टे और
विष्णु करकरे दिल्ली रेलवे स्टेशन के विश्राम कक्ष में मिले और बिड़ला हाउस की ओर
चल दिए। वे आसानी से सायंकालीन प्रार्थना में उपस्थित होने वाली भीड़ का हिस्सा बन
गए। 30 जनवरी 1948, शुक्रवार की शाम के पांच बजकर 17 मिनट पर गोडसे ने गांधी जी को
रास्ते में रोक लिया और एकदम पास से 9 एम.एम बेरेटा पिस्टल से उनके सीने में तीन
गोलियाँ उतार दीं। गाँधी जी हे राम बोलते हुए जमीन पर गिर पड़े।
गोडसे
अंततः वह करने में सफल हो गया था जिसमें पिछले तीन मौकों पर या और भी कई मौकों पर
असफल रहा था। पुलिस क्या कर रही थी? क्या वह लापरवाह थी? आत्मसंतुष्ट थी? या, यह
मामला आराम से नजरें घुमा लेने का था? दिल्ली पुलिस के पास
मदनलाल पहवा का हस्ताक्षरित इकबालिया बयान था जिसमें उल्लेख था कि गिरोह दुबारा
प्रयास करने के लिए दृढ़-संकल्प था। उससे पूछताछ के दौरान वह प्रायः दुहराता था कि
वो फिर आयेगा। पूना और बॉम्बे दोनों स्थानों की पुलिस ‘हिंदू राष्ट्र’ तथा ‘अग्रणी’, इसके स्टाफ और
इसके पीछे जो व्यक्ति थे उनके बारे में जानती थी। आश्चर्य की बात है कि पूना पुलिस
से न कभी सहायता के लिए पूछा गया और न ही सूचना दी गई। बॉम्बे पुलिस के एक वरिष्ठ
अधिकारी को इस रिपोर्ट को बॉम्बे पोस्ट शीघ्र पहुँचाने के लिए कहा गया। उस अधिकारी
ने हवाईजहाज से या सीधे मार्ग से जाने के बजाय ट्रेन द्वारा इलाहाबाद होते हुए तथा
वहाँ रुकते हुए जाने का निर्णय लिय़ा। जब तक अधिकारी बॉम्बे पहुँचा, नाथूराम गोडसे,
नारायण आप्टे और विष्णु करकरे वहाँ से निकल चुके थे और वापस दिल्ली के रास्ते पर
थे। जब बाद में सहायक आयुक्त से उसके यात्रा के तरीके के बारे में प्रश्न किया गया
तो उसने उत्तर दिया कि उसे उड़ान में डर लगता है। उसके इस स्पष्टीकरण को स्वीकार
कर लिया गया।
हत्या
की योजना की सफलता के महत्वपूर्ण कारकों में से एक यह भी था कि गाँधी जी ने अपनी
अतिरिक्त सुरक्षा और उनसे मिलने आने वाले व्यक्तियों की जाँच के लिए अनुमति नहीं
दी थी। इस कारण पुलिस ने बॉम्बे, पूना या अहमदनगर से गोडसे, आप्टे या करकरे, जो
अपने गृहनगरों के पुलिस रिकार्ड में उपद्रवियों के रूप में जाने जाते थे उनको पहचानने
में सक्षम पुलिस आरक्षकों या निरीक्षकों को बिड़ला हाउस में नियुक्त करने के बारे
में विचार नहीं किया। । हत्या के बाद गोडसे की पहचान करने वाले पहले व्यक्ति पूना
के अनुभवी कांग्रेसी अन्ना गाडगिल थे।
कांग्रेस
सरकार और कम-से-कम कैबिनेट के कुछ सदस्य हस्तक्षेप करने वाले वृद्ध व्यक्ति के
व्यवधानों से उकता चुके थे। उनके लिए शहीद महात्मा का साथ अधिक लाभदायक था। सरदार
पटेल को सौंपी गई एक गुप्त रिपोर्ट के अनुसार पुलिस बल और नौकरशाही के बहुत से
व्यक्ति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा के गुप्त सदस्य थे, और हिंदू उग्रवादी
संगठनों की विचारधारा के प्रचार एवं सहयोग में सक्रिय थे। गिरोह के सदस्य इन उग्रवादी
संगठनों के तूफानी दस्ते के सैनिक थे। क्या दोनों के मध्य एक मूक सहयोग संभव था? जिस तरह से जाँच की प्रक्रिया चली, और गाँधी जी
के जीवन की रक्षा के लिए पुलिस के प्रयासों का ढुलमुल रवैया रहा, कोई भी विश्वास
कर सकता है कि जाँच का उद्देश्य तथ्यों को उजागर करने से अधिक छिपाने से था। 20 और
30 जनवरी 1948 के मध्य किए गए उपाय हत्या को रोकने के प्रयास की जगह हत्यारों को
आसान अवसर सुनिश्चित करने के लिए थे।
गाँधी
जी अंग्रेजों को खदेड़ने में सफल रहे। दुर्भाग्य से उनके राजनीतिक उत्तराधिकारियों
के लिए उनके नैतिकतावाद का अनुसरण करना कठिन हो गया था। उनके लिए वे एक आदरणीय
वृद्ध पुरुष मात्र थे जिनकी उपयोगिता समाप्त हो गई थी और अब एक बाधा सिद्ध हो रहे
थे। उन्होंने सलाह दी थी कि कांग्रेस को समाप्त किया जाना चाहिए। उन्होंने धमकी दी
थी कि वे विभाजन की प्रक्रिया को उलटने के लिए पाकिस्तान चले जाएँगे। उन्होंने
आदर्श समाज की स्थापना के अपने लक्ष्य के लिए राजनीति से प्रेरित लघुअवधि के
उपायों को निरस्त करने के लिए उन पर दबाव डाला। उन्होंने भारत के तीव्र औद्योगीकरण
के कदम का विरोध करते हुए धीमी गति से ग्रामोद्योग प्रारूप को प्राथमिकता दी। वे
चाहते थे कि मंत्री जनता के सेवक की तरह से कार्य करें और अपने भव्य बंगलों को गृहविहीन
शरणार्थियों का आश्रय बनाएँ। उन्होंने माउंटबेटन से कहा कि वायसरीगल महल को खाली
कर दें और उसमें शरणार्थियों के लिए अस्पताल बनाएँ।
गाँधी
जी के राजनीतिक उत्तराधिकारी ऐसे अव्यवहारिक वृद्ध व्यक्ति के साथ कैसे निबाह कर
सकते थे? यदि किसी प्रकार उन्हें दृश्य से हटा दिया जाए
तो हानि कहाँ थी? कई स्थानों पर उनके प्रति नाराजगी थी, तो इस
क्रोध को हवा क्यों न दी जाए और इसे सुविधाजनक रूप से शांति दूत को निगल लेने दिया
जाए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा उनसे नाराज थे क्योंकि गाँधी जी ने
उनकी देश के स्पष्ट विभाजन और मुस्लिम मुक्त भारत की योजना को विफल कर दिया था। जब
जनसंख्या का स्थानांतरण हो रहा था, इन संगठनों ने यह सुनिश्चित करने की पूरी कोशिश
की कि कम-से-कम भारत के उत्तरी भागों से जनसंख्या की पूरी अदला-बदली हो जाए। एक
बार यह हो जाता तो भारत के बाकी हिस्से से उन्हें बाहर निकालना सरल हो जाता और तब
सही रूप से हिंदू राष्ट्र का निर्माण हो पाता। मुस्लिम लीग ने पहले ही इस तरीके का
प्रदर्शन किया था। उसने पश्चिमी पंजाब, सिंध, उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रोविंसों और
पूर्वी बंगाल की हिंदू जनसंख्या को प्रभावशाली ढंग से भयभीत किया कि या तो छोड़ कर
जाओ या मारे जाओ। लेकिन गाँधी जी ने अपने अहिंसा के तरीके से सुनिश्चित किया कि
ऐसा भारत में न हो। जो मुस्लिम पलायन के लिए तैयार थे गाँधी जी के प्रयासों से फिर
से भरोसे में लिए गए। नाराज हिंदू उग्रवादियों का मानना था कि जब पाकिस्तान बन ही
गया है तो मुस्लिमों को भारत में रहने का कोई अधिकार नहीं है, और इस उद्देश्य के
पूरा न हो पाने का दोष गाँधी जी को दिया। कई कांग्रेसी राजनेताओं की भी इसी प्रकार
की सोच थी। बड़ी चतुराई से आर.एस.एस. और हिंदू महासभा के कट्टरपंथियों ने अपनी
वास्तविक नाराजगी को अपनी मातृभूमि के जीवच्छेदन के अत्याचार और पूर्वी व पश्चिमी
पाकिस्तान के अपने हिंदू भाइयों के नर-संहार के छद्मावरण में छिपा लिया और आसानी
से इसका दोष गाँधी जी पर मढ़ दिया। कांग्रेसी नेता प्रसन्न थे कि उनकी गलतियों के
लिए किसी अन्य को सूली पर चढ़ाया जा रहा है।
आर.एस.एस.
तथा हिंदू महासभा दोनों में ही ब्राह्मणों का बोलबाला था और वे गाँधी जी से वर्गमुक्त
व जातिमुक्त भारतीय समाज के लिए आंदोलन शुरू करने के लिए नाराज थे। गाँधी जी द्वारा
मुक्त एवं पुनरुत्थान हुई निम्न जातियाँ, अपने लोकतांत्रिक अधिकारों से परिचित
होने पर उच्च जातियों के प्रभुत्व को भयभीत कर रही थीं, विशेष रूप से ब्राह्मणों
को, जिन्होंने अंग्रेजों के अधीन नौकरशाही और न्यायपालिका पर एकाधिकार प्राप्त कर
लिया था। 1947 से पूर्व भारत में केवल एक ही ब्राह्मण राज्य था – महाराष्ट्र में
पूना के पेशवाओं का मराठा साम्राज्य। पूना के ब्राह्मणों का हमेशा से मानना था कि
जिस दिन अंग्रेज भारत छोड़ देंगे राज्य की बागडोर वापस उनके हाथों में आ जाएगी।
गाँधी जी के कारण पेशवाओं के वंशजों का यह सपना चूर-चूर हो गया था।
गाँधीजी
के जीवन पर हमले का पहला प्रयास पूना में हुआ जब 1934 में उनकी कार पर एक हथगोला
फेंका गया था। यह उस समय हुआ था जब पाकिस्तान, और उसके बनने के कारण पाकिस्तान को
55 करोड़ रुपए देने के संबंध में कल्पना ही नहीं थी। आर.एस.एस. और हिंदू महासभा के
सदस्य गाँधी जी की तस्वीर को उनके अपमान स्वरूप अपने जूते-चप्पलों के तलवों पर चिपकाया
करते थे। हिंदू उग्रवादी संगठनों द्वारा उनके काडरों को प्रशिक्षित करने के लिए
आयोजित शिविरों में उनके फोटोग्राफों का उपयोग टारगेट के रूप में प्रयोग किया जाता
था। यही वे लोग थे जिन्होंने हत्या की योजना बनाने में गोडसे और आप्टे की सहायता
की, उन्हें अपना सहयोग, धन और उपकरण उपलब्ध कराए; वे वही
थे जिन्होंने हत्या पर मिठाई बांटकर और फटाखे छोड़ कर उत्सव मनाया। वे हत्या को वध
मानते थे। वध संस्कृत का शब्द है जिसका उपयोग हिंदू पौराणिक कहानियों में राक्षसों
की हत्या को, जब कभी अच्छाई की ताकतें बुराई की ताकतों को मारती है, दुष्ट आत्मा
की हत्या को वर्णित करने में किया जाता है।
हत्यारों
पर नई दिल्ली के लाल किला में विशेष रूप से गठित अदालत में मुकदमा चलाया गया था। अभियोजन
पक्ष भावुक था; यह महसूस किया गया कि सुनवाई पूर्वाग्रहग्रस्त थी।
सावरकर को किसी भी कीमत पर दोषमुक्त किया जाना था, बाकी की पहले ही निन्दा की जा
चुकी थी। बचाव पक्ष को हिंदू-मुस्लिम नफरत की विद्वेषपूर्ण धारणाओं को प्रतिपादित
करने की पूरी स्वतंत्रता दी गई थी। सबसे आश्चर्यजनक पहलू यह था कि गोडसे को अदालत
में दो बार अपनी नाराजगी को प्रकट करने की अनुमति दी गई थी; एक बार लाल किले में और दूसरी बार पंजाब उच्च
न्यायालय में अपील के दौरान। अदालत में उसके बयान को रिकॉर्ड करने के बाद ही भारत
सरकार को अहसास हुआ कि उसका बयान भारत की पहले से कमजोर एकता को कितनी हानि पहुचा
सकता है। फिर अचानक प्रतिक्रिया दिखाते हुए इसे प्रतिबंधित कर दिया और हिंदू उग्रवादियों
को प्रचार का हथियार दे दिया। गोडसे का बयान ‘यह आपके सम्मान को
खुश कर सके’ को बाद में उच्च न्यायालय द्वारा मुक्त कर दिया
गया, लेकिन तब तक हिंदू उग्र-दक्षिणपंथियों द्वारा कंट्टरपंथियों
और सहानुभूति रखने वालों की बड़ी फौज खड़ी हो चुकी थी।
निश्चित
रूप से बयान गोडसे द्वारा नहीं लिखा गया है क्योंकि उसने भाषा पर इतनी गहरी पकड़
कभी नहीं दर्शाई। अधिकांश उदारचित्तों का भावनात्मक रूप से शोषण करने और प्रभाव
डालने के लिए अभिलेख को बड़ी चतुराई पूर्वक लिखा गया था। वी.डी. सावरकर जो
सह-षड़यंत्रकारी था, भाषा का पूर्ण ज्ञाता था। वह विस्फोटक लेख लिखना जानता था और
अतुलनीय वक्ता था। उनके कारावास और सुनवाई के दौरान गोडसे की उस तक पर्याप्त पहुँच
थी। जो बयान गोडसे का कहा जाता है उसमें सावरकर की लेखनशैली की झलक दिखाई देती है।
अब
गाँधी जी की हत्या को लगभग 60 वर्ष बीत चुके हैं, फिर भी बहुत से तथ्यों की
जानकारी नहीं है। भारत का विभाजन और उसके परिणामस्वरूप मानवता का संहार आज तक बहुत
ही विस्फोटक और संवेदनशील मामले हैं। हिंदू उग्रवादियों ने बड़ी सफलतापूर्वक विभाजन
और उसके परिणाम के लिए गाँधी जी की भूमिका को अपने दृष्टिकोण के साथ प्रचारित किया
है। गाँधीवादियों की चुप्पी और कांग्रेसियों के आत्मसंतोष ने गोडसे के अनुयायियों
की झूठी बातों को और बल दिया है।
मौखिक
इतिहास से, पूर्व में प्रकाशित पुस्तकों से, हत्या की सुनवाई और जाँचों के
अभिलेखों से, बचाव-पक्ष के वकीलों और न्यायाधीशों द्वारा लिखी पुस्तकों से, समाचार
पत्रों की रिपोर्टों से और परिवार में होने वाली बातों से जिन्हें सुनकर मैं बड़ा
हुआ और गाँधी जी के चहेतों के भौंचक्केपन को देखने से जो तथ्य बटोरे हैं उन्ही के
बारे में लेट्स किल गाँधी पुस्तक है।
मेरे
बचपन के दौरान के एक अनुभव ने मेरे ऊपर एक स्पष्ट छाप छोड़ी है। मेरी उम्र मुश्किल
से 10 – 12 की रही होगी जब मेरी दादी सुशीलाबेन दक्षिण अफ्रीका से हमारे पास रहने
के लिए आईं। उन्होंने नाथूराम गोडसे के छोटे भाई जो हत्या में सह-आरोपी था, से
मिलने की इच्छा जताई। मेरे परदादा की हत्या में अपनी भूमिका के लिए मिली आजीवन
कारावास की सजा उसने तभी पूरी की थी। पूरा परिवार कार से पूना पहुँचा। हमारे लिए
पूना जाने का अर्थ था आगाखाँ पैलेस में कस्तूरबा की समाधि के दर्शन करना और फिर
महादेवकाका की समाधि पर जाना। महादेवकाका मतलब महादेव देसाई जो गाँधी जी के सचिव
के होने के साथ-साथ उनके घनिष्ठ सहयोगी थे। उनकी मृत्यु आगाखाँ पैलेस में कैद के
दौरान हुई थी। उसके बाद परदादा के
हत्यारों के घर गए। गोपाल गोडसे के लिए हमारा कार्य पीड़ित के परिवार द्वारा उसके
कार्य की स्वीकृति के समान था। उसने घटनाक्रम को तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत किया जिससे
हमको नीचता पूर्ण कार्य को सहमति देनी थी और उनके कार्य पर अनुमोदन का ठप्पा लगाना
था। मेरे लिए यह सब बहुत ही भ्रामक था। मैं यह सब समझने के लिए बहुत ही छोटा था कि
मेरी दादी क्यों यह व्यक्त करना चाह रही थी कि उनके परिवार ने गोडसे को छमा कर
दिया है। मैं अभी तक यह नहीं समझ पाया कि हमें यह करने की आवश्यकता क्या थी! कोई ऐसे व्यक्ति को कैसे छमा कर सकता है जिसे
अपने कार्य का कोई पछतावा नहीं हो। मैं उन्हें कभी छमा नहीं कर सकता, न ही उस दार्शनिकता
को छमा कर सकता हूँ जिसने हत्यारे नाथूराम गोडसे को उत्पन्न किया।
मुझे
गोपाल गोडसे से बातचीत का एक और अवसर मिला। वह अब बहुत ही कमजोर वृद्ध व्यक्ति था,
तब भी घोर असत्य को सत्य सिद्ध करने में बहुत ही मदांध और चतुर था। हम एक टॉक-शो
में थे जिसकी मेजबानी मेरी प्रिय मित्र स्व. प्रिया तेंदुलकर कर रही थी। शूटिंग
समाप्त होने पर गोपाल गोडसे ने कांपते पैरों पर उठने का प्रयास किया। जब मैंने
बूढ़े आदमी को लड़खड़ाते देखा तो सहारा देने के लिए अपना हाथ बढ़ा दिया और कॉलर
माइक को निकालने में सहायता की। प्रेस फोटोग्राफरों ने इस दृश्य को फोटो में कैद
कर लिया और राष्ट्रीय समाचार पत्रों में छाप दिया। मेरा यह कार्य एक वृद्ध व्यक्ति
के प्रति आम व्यक्ति का शिष्टाचार भर था। मेरा निश्चय है कि गोपाल ने वे तस्वीरें
उसके प्रति मेरी प्रसंशा और उसके कार्य के लिए मेरे अनुमोदन के रूप में दिखाईं
होगीं।
30
जनवरी 1977 को मैंने अपने परदादा की अंत्येष्टि-वेदी की भष्म का घट प्रवाहित कर
दिया। यही वह समय था जब मैं अपने परदादा के पास शारीरिक रूप से सबसे पास था।
इलाहाबाद में धार्मिक संस्कार संपन्न करने के बाद मैं दिल्ली में राजघाट स्थित
गाँधी राष्ट्रीय संग्रहालय गया जहाँ गाँधी जी द्वारा पहने रक्तरंजित वस्त्र रखे
हुए हैं। उस 9 एम.एम. बैरेटा स्वचालित बंदूक को मैंने पहली बार देखा जिसका गोडसे
ने प्रयोग किया था। उसे हाथ में लिया। मुझे अपने अंदर अति तीव्र रोष का भाव महसूस
हुआ; उस समय मैं एक संघी को गोली मार सकता था। यह
पुस्तक उसी रोष का परिणाम है जो बहुत समय से मेरे अंदर एकत्र हो रहा था। मेरे
परदादा कहा करते थे – गुस्सा एक अम्ल की तरह होता है जो उसी पात्र को हानि
पहुँचाता है जिसमें वह रखा होता है।
भारत आज 1940 जैसे ही दौर से गुजर रहा है। मौकापरस्तों और शोषण
करने वाले राजनीतिज्ञों ने निर्वाचक वर्ग को जाति और उपजातियों के आधार पर विभाजित
कर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को एक मजाक बना दिया है। मुस्लिम मुल्लाओं-मौलवियों के
कार्यों और मुस्लिमों में से मौकापरस्त राजनीतिक नेतृत्व की सहायता से हिंदू
चरमपंथी तत्व अधिक ताकतवर हो गए हैं और उन्होंने भारत को मुस्लिम मुक्त करने के
लिए या उन्हें अपने जन्मजात देश में गुलाम बना कर रखने के लिए अपना अभियान पुनः
शुरू कर दिया है। हिंदू श्रेष्ठतावादियों की एक धारा गाँधी जी और अम्बेडकर से पहले
के ब्राह्मण प्रभुत्व समाज की पुनः स्थापना करना चाहती है।
हम एक
और विध्वंश नहीं चाहते हैं। हम जातिगत प्रभुत्व नहीं चाहते हैं; हम धर्मों के मध्य एक और युद्ध नहीं चाहते हैं।
वंश संबंधी रूपरेखा बनाना नस्ली पवित्रीकरण का पहला कदम है। हम हिटलर और मिलीविक
के काल में नहीं रह सकते हैं। दादागिरी दिखाने वाली महाशक्ति की दया के सहारे विश्व
जीवित नहीं रह सकता है। हम गाँधी जी के भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश को एक करने के
सपने को साकार करें। भारत को
आर.एस.एस. और हिंदू महासभा की विचारधारा के हिंदू राष्ट्र की आवश्यकता नहीं है। हम
एक और विभाजन नहीं चाहते. न दिलों का और न भूमि का।
यह
पुस्तक तथ्यों की सीधे रखती है। हम भूल न जाएँ।
तुसार
ए. गाँधी
(हिंदी
अनुवाद – रवीन्द्र कुमार खरे)
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