Teacher-टीचर

व्यंग्य - टीचर

गाँव के स्कूलों में टीचर का कार्य करने वाले कुछ व्यक्तियों की मानसिकता पर व्यंग्य करती हुई लघु-कथा, जिनके कारण पूरे टीचर समाज के बारे में गलत और निम्न स्तर की धारणाएँ बन जाती हैं और कर्मठ टीचरों को भी शर्मिंदा होना पड़ जाता है।

मैं हूँ टीना, एक टीचर! भाई की इंजीनियरिंग में पापा का पूरा फंड फुँक गया। मैंने बी.ए. किया, फिर खुद ही ट्यूशन करके बी.एड. किया। प्राइवेट स्कूल में चार वर्ष टीचर रही। वहाँ दो हज़ार रुपए देते थे, तीन हज़ार पर हस्ताक्षर करवाते थे। बाद में किसी तरह मैं एक सरकारी स्कूल में टीचर हो गई, तब से आराम ही आराम है। खूब सारी वेतन मिलती है, मजे ही मजे हैं।

मैंने स्कूटी जानबूझ कर नहीं ली है। गाँव जाने वाली बस जब पहुँचेगी, तभी तो स्कूल का ताला खोलूँगी। बंद भी उसी तरह बस के समय से करना होता है। शिक्षा विभाग के आदेश स्कूलों के लिए अलग हैं, पर प्राइवेट बसों के समय पर किसी का आदेश लागू नहीं होता। गाँव वाले बच्चों को पढ़ाना ही कौन चाहता है? उन्हें तो खेत में फसल भी काटना है, घर का चौका-चूल्हा भी करना है। परीक्षा में कक्षा आठ तक किसी को फेल भी नहीं कर सकते। अगली कक्षा में बढ़ाना ही है। फिर ये लड़के-लड़कियाँ जिन्हें गणित, अंग्रेजी कुछ नहीं आती, दसवीं की बोर्ड की परीक्षा में पास भी कैसे होंगे? इसलिए इन्हें घर-गृहस्थी और खेती-बाड़ी के काम तो सीखने ही होंगे।

मिड-डे मील में तो पूरी कमाई है, दो सौ का नामांकन है। बच्चे आते हैं केवल पचास, खूब बचत हो जाती है। बच्चों को पुरानी किताबें दे देती हूँ। नई किताबें अपनी सहेली को बेच देती हूँ, जो अपना निजी स्कूल चलाती है। उन किताबों को उसके स्कूल के बच्चे खरीदते हैं। यह भी ऊपरी कमाई का एक स्रोत है। एक रिटायर्ड अंकल हर साल कॉपी, पेन-पेन्सिल बाँटने आते हैं, उनके जाने के बाद बच्चों से सब वापिस लेकर शाम को उसी स्टेशनरी की दुकान पर बेच आती हूँ।

स्कूल में तीन टीचर हैं, हफ्ते में दो-दो दिन ही आते हैं। हम छुट्टी का प्रार्थना-पत्र रजिस्टर में रख देते हैं। जब निरीक्षण अधिकारी आते हैं तो छुट्टी चढ़ा देते हैं, वरना रजिस्टर में हस्ताक्षर कर देते हैं। गाँव के सरकारी स्कूल में कुठ काम नहीं है। जब संस्थान ने हमको शिक्षक दिवस पर सम्मानित किया, तो हमें स्वयं पर शर्म आ रही थी कि बिना कुछ किए, हमें क्यों सम्मानित कर रहे हैं?

एक बात और बताऊँ, मुझमें एक अच्छाई और भी है। जेठजी तो आई.आई.टी. करके विदेश चले गए। अब सास-ससुर को तो टाइम-टू-टाइम रोटी मैं ही दे रही हूँ, इसलिए घर में मुझे ही अच्छी बहू का प्रशस्ति-पत्र मिला है। पति की कच्ची नौकरी है, अतः मेरे वेतन से ही घर में दूध-सब्जी और राशन आता है। ऊपर की कमाई से मैं अपने ब्यूटी पॉर्लर, मोबाइल जैसे आवश्यक कामों के खर्च निकाल ही लेती हूँ। मेरी मानिए, आप भी बी.ए. बी.एड.कर टीचर बन जाइए, सुखी रहेंगी।

-- दिलीप भाटिया

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