स्वयं को पहचानो

प्रेरक कथा - स्वयं को पहचानो


एक छोटी सी कहानी कहता हूँ। एक राजधानी में एक संध्या बहुत बड़े स्वागत की तैयारियाँ हो रही थीं। पूरा नगर दीपों से सजाया गया था। देश का सम्राट स्वयं नगर के बाहर एक सन्यासी की प्रतीक्षा में खड़ा था, वह सम्राट के बचपन के मित्रों में से एक था। उस सन्यासी का यश दूर-दूर के राष्ट्रों तक फैल गया था। सन्यासी आया, उसका स्वागत हुआ, सन्यासी के साथ सम्राट ने राजमहल में प्रवेश किया। वह सारी पृथ्वी का चक्कर लगा कर लौटा था। राजा ने उसकी कुशलक्षेम पूछी और अपने मित्र सन्यासी से कहा, "सारी पृथ्वी घूम कर लौटे हो, मेरे लिए क्या लाए हो?"

सन्यासी ने कहा, "मुझे भी ख्याल आया था कि तुम्हारे लिए कुछ लेता चलूँ। बहुत खोजा, लेकिन जो भी खोजता, यही ख्याल आता कि तुम्हारे पास होगा, तुम्हारे महल में किस बात की कमी होगी! मैं सन्यासी तुम्हारे लिए क्या ले सकूँगा? फिर भी एक चीज लाया हूँ।"

सम्राट भी विचार में पड़ गया कि यह क्या चीज लाया होगा? उसके पास कुछ दिखाई भी न पड़ रहा था, सिवाय एक झोले के। उसने झोला खोला और एक बड़ी सस्ती-सी और एक बड़ी सामान्य-सी चीज उसमें से निकाली। एक आईना, एक दर्पण और सम्राट को देते हुए कहा, यह दर्पण मैं तुम्हारे लिए भेंट में लाया हूँ, ताकि तुम इसमें स्वयं को देख सको।"

दर्पण राजा के महल में बहुत थे, दीवारें दर्पणों से ढकीं थीं। राजा ने कहा, "दर्पण तो मेरे महल में बहुत हैं।"

उस सन्यासी ने कहा, "होंगे जरूर, लेकिन तुमने उसमें शायद ही स्वयं को देखा और पहचाना हो। मैं जो दर्पण लाया हूँ, इसमें तुम स्वयं को पहचानने की कोशिश करना। बहुत कम लोग हैं, जो स्वयं को पहचानने में समर्थ हो पाते हैं। और वह व्यक्ति जो स्वयं को पहचान नहीं पाता, वह चाहे सारी पृथ्वी देख ले, तो भी मानना कि उसके पास आँखें नहीं थीं। मैं एक छोटा-सा दर्पण तुम्हें भेंट करना चाहूँगा, जिसमें तुम अपने आपको पहचान सको।"

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