खाली हिस्से
खाली हिस्से
अक्सर लगता है कि देर रात जब नींद न आ रही हो या आधी आ रही हो, बची-खुची भी ग़ायब हो तो दिमाग़ में जो फ़िल्म चलती है, वो सबसे सच्ची होती है।
नींद न आने पर पेंटिग बनाने का मन हो, पानी के रंगों से पेंट करने का मन, छोटे-छोटे नीले पहाड़, एक आधी सुनहरी ज़मीन पर पेड़ और ज़रा सी घास। क़ायदे से ऐसी तस्वीर में हमेशा एक नदी होती थी और चांद, एक नाव होती थी पाल वाली और उसमें अकेली बैठी एक लड़की, जाने क्या सोचती हुई।
मैं छोटी थी तो ये वाली पेंटिंग ख़ूब बनाती थी। मेरे घर के पीछे एक पोखर था और उसमें पूर्णिमा का चांद बड़ा-सा दिखता था। मैं बड़ी-सी झील की कल्पना करती थी और उसमें किसी नाव में देर रात तक अकेले जा रही होती थी। उन दिनों ऐसे अकेले-अकेले चले जाने में या रात को इस तरह झील पर नाव में बैठे होने में डर नहीं लगता था। मेरे लिए चीज़ों के सच होने की शर्त इतनी ही है कि मैं उसे छू सकूँ। मैं रंग घोल कर उनमें उंगलियाँ डुबो कर पेंट किया करती थी। पहले मुझे रंग बहुत पसंद थे। अब भी उंगलियों में इंक लगी ही रहती है अक्सर। इतनी देर रात अब पेंट करने जाउँगी तो नहीं, लेकिन मेरा मन कर रहा है।
आज एक दोस्त से बात कर रही थी। मैंने समझदार की तरह कहा, "वैसे भी, सब कुछ कहाँ मिलता है किसी को ज़िंदगी में।"
उसने कहा, "तुम्हें तो वाक़ई सब कुछ मिलना चाहिए।"
मैंने नहीं पूछा कि क्यों? ऐसा क्या ख़ास है मुझमें कि मुझे ही सब कुछ मिलना चाहिए! मैं बस ख़ुश थी कि कितने दिन बाद उससे बात कर रही हूँ। हमने बाक़ी दोस्तों से बात की। मैंने कहा कि मैं उसे बहुत मिस करती हूँ। बस, एक उस दोस्त के जाने के बाद मन एकदम ही दुखी हो गया। अब किसी नए व्यक्ति से दूरी बना कर रखती हूँ। जो लोग अच्छे लगते हैं, उनसे तो ख़ासतौर पर।
कम लोग रहे ज़िंदगी में, जिनसे बहुत प्यार किया। अब उनके जाने के बाद वे ख़ाली हिस्से भी मेरे हैं। वहाँ थोड़े नए किराएदार रख लूँगी। यो जो ज़िंदगी का दस्तूर है, आने-जाने वाला, वो अब नहीं पसंद। कोई न आए, सो भी बेहतर।
पूजा उपाध्याय
समाचार पत्र-हिंदी मिलाप
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